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स्वः स्वाय॒ धाय॑से कृणु॒तामृ॒त्विगृ॒त्विज॑म्। स्तोमं॑ य॒ज्ञं चादरं॑ व॒नेमा॑ ररि॒मा व॒यम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svaḥ svāya dhāyase kṛṇutām ṛtvig ṛtvijam | stomaṁ yajñaṁ cād araṁ vanemā rarimā vayam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्वः। स्वाय॑। धाय॑से। कृ॒णु॒ताम्। ऋ॒त्विक्। ऋ॒त्विज॑म्। स्तोम॑म्। य॒ज्ञम्। च॒। आत्। अर॑म्। व॒नेम॑। र॒रि॒म। व॒यम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:5» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:26» मन्त्र:7 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (स्वः) आप (स्वाय) अपने (धायसे) करनेवाले स्वभाव के लिये (कृणुताम्) किसी काम को करें वा (त्विक्) तुओं के अनुकूल सब व्यवहारों की प्राप्ति कराता हुआ (त्विजम्) दूसरों को अपने अनुकूल वा (स्तोमम्) स्तुति प्रशंसा के योग्य व्यवहार (यज्ञम्, च) और यज्ञ को करे वैसे (वयम्) हम लोग (ररिम) रमें (आत्) और (अरम्) परिपूर्ण (वनेम) अच्छे प्रकार सब पदार्थों का सेवन करें ॥७॥
भावार्थभाषाः - जैसे आप अपने हित के लिये प्रवृत्त हों वा विद्वान् जन विद्वानों और यज्ञ करनेवाले विविध प्रकार के क्रियायज्ञ को सिद्ध करते हैं, वैसे हमलोग भी प्रवृत्त हों ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

यथा स्वः स्वाय धायसे कृणुतामृत्विगृत्विजं स्तोमं यज्ञञ्च कृणुतां तथा वयं ररिमादरं वनेम ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वः) स्वयम् (स्वाय) स्वकीयाय (धायसे) धर्त्रे (कृणुताम्) कुरुताम् (त्विक्) त्वनुकूलं सङ्गच्छन् (त्विजम्) (स्तोमम्) स्तुत्यम् (यज्ञम्) (च) (आत्) अनन्तरम् (अरम्) अलम् (वनेम) संभजेम। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (ररिम) रमेमहि। अत्राप्यन्येषामपीति दीर्घः। (वयम्) यज्ञानुष्ठातारः ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा स्वयं स्वस्य हिताय प्रवर्त्तेत विद्वांसो विदुषो यज्ञानुष्ठातारो विविधक्रियं यज्ञं संपादयन्ति तथा वयमपि प्रवर्तेमहि ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे आपण आपल्या हितामध्ये प्रवृत्त होतो व विद्वान लोक विद्वानांकडून विविध प्रकारच्या क्रिया करून यज्ञ सिद्ध करतात, तसे आम्हीही त्यात प्रवृत्त व्हावे ॥ ७ ॥